छत्तीसगढ़ में दूसरे कई राज्यों के मुकाबले शराब एक अधिक बड़ा मुद्दा रहा है। गुजरात में तो परंपरागत रूप से गांधी का प्रदेश होने के नाते शराबबंदी रहते आई है, और इस पश्चिमी राज्य के ठीक दूसरी तरफ उत्तर-पूर्व में मिजोरम में शराबबंदी चर्च के असर से चली आ रही है, और वहां यंग मिजो एसोसिएशन नाम का नौजवान संगठन बाहुबल का इस्तेमाल करके शराब या किसी भी दूसरे नशे के खिलाफ राज्य में अपना कानून चलाता है, और उसे चर्च का पूरा सहयोग रहता है, और सरकार भी घोषित रूप से उसकी हिंसा को अनदेखा करती है कि नशाबंदी लोगों के हित में है। लेकिन अभी भारत सरकार के जारी किए गए आंकड़े बताते हैं कि छत्तीसगढ़ प्रति व्यक्ति आय में जिन विकसित प्रदेशों से बहुत पीछे है, शराबखोरी में प्रति व्यक्ति खपत और खर्च में उन विकसित राज्यों से बहुत आगे है। और यह नौबत तब है जब इस राज्य में शराब बिक्री को घटाने का दावा करने वाली पिछली भाजपा सरकार, और अपने इस नए कार्यकाल में शराबबंदी करने का वायदा करने वाली कांग्रेस सरकार ने पूरी शराब खरीदी और बिक्री का कारोबार अपने हाथ में रखा है। यह धंधा पूरी तरह सरकार चला रही है, पिछले बरसों में छोटे गांवों से दुकानें कम करने के फैसले लगातार होते रहे, लेकिन खपत और खर्च दोनों में जनता आगे है। दूसरी तरफ अखबार रोजना ऐसी खबरों से भरे रहते हैं कि नशे की लत की वजह से परिवार में कैसी हिंसा हुई, किसने हत्या की, किसने आत्महत्या की।
अब सवाल यह है कि पूरी तरह सरकारी काबू वाले कारोबार के चलते हुए जब दुकानों के सामने खरीददारों की भीड़ में मारपीट की नौबत रोज की बात है, तब शराब इतनी बिक रही है जितनी कि विकसित महाराष्ट्र में भी नहीं बिकती। महाराष्ट्र में हर कुछ दूरी पर शराब दुकानें हैं, शराबखाने हैं, और वहां सरकार ने इस कारोबार पर ऐसी कोई मजबूत पकड़ भी नहीं रखी है। ऐसे में लगता है कि छत्तीसगढ़ में जनता के हाथ में आने वाले पैसे बेदर्दी से खर्च हो रहे हैं, बच्चे कुपोषण के शिकार हैं, और पिता नशे में धुत्त हैं। यह एक बड़ी सामाजिक चुनौती है जिसे सरकारी फैसलों से रातोंरात बदला नहीं जा सकता। नशाबंदी सुनने में एक बड़ा आकर्षक नारा लगता है, लेकिन आज पंजाब जिस नशे में डूब गया है, वह शराब नहीं है, बल्कि दूसरे किस्म का अंतरराष्ट्रीय बाजार से आने-जाने वाला नशा है जिसने पीढ़ी-दर-पीढ़ी बर्बाद कर दी है। छत्तीसगढ़ सरकार नशाबंदी करके हजारों करोड़ की कमाई भी खो सकती है, और नशे के आदी अपने लोगों को किसी दूसरे अधिक खतरनाक नशे के हाथों भी खो सकती है। ऐसे में किसी जनकल्याणकारी सरकार के लिए फैसला आसान नहीं हो सकता।
नशे को लेकर जागरूकता समाज के भीतर तेजी से बढ़ाने की जरूरत है, क्योंकि जिन देशों में, जिन प्रदेशों में शराब छत्तीसगढ़ के मुकाबले अधिक आसानी से मिलती है, यहां के मुकाबले सस्ती भी है, वहां भी लोग शराब इतनी नहीं पीते हैं, जितनी कि यहां पीते हैं। इसलिए इसे जनता को मिलने वाले सस्ते चावल की वजह से बचे पैसों से पीना भी कहा जाता है, धान के दाम की गारंटी से भी कुछ लोग शराब की खपत को जोड़ते हैं, और अब किसान कर्जमाफी से भी कुछ लोग शराब की बढ़ती खपत को जोड़ेंगे। छत्तीसगढ़ में शराब से होने वाले आर्थिक-सामाजिक नुकसान की कीमत सरकार की कमाई के मुकाबले कई गुना अधिक है। लाखों परिवार तबाह हो रहे हैं, और दसियों हजार करोड़ की उत्पादकता खत्म होती है। दुनिया में कई ऐसे देश हैं जहां पर लोग अधिक समझदारी के साथ दारू पीते हैं, लेकिन जहां लोग नशा करने में अधिक गैरजिम्मेदार हो जाते हैं, वहां नशे से मजा नहीं मिलता, बल्कि सजा मिलती है, छत्तीसगढ़ ऐसा ही एक राज्य होते जा रहा है, हो चुका है।
भारत जैसे लोकतंत्र में किसी सरकार की आर्थिक योजनाएं अधिक आसान होती हैं, और सामाजिक योजनाएं मुश्किल। सामाजिक फेरबदल लाना एक अधिक बड़ी चुनौती रहती है। छत्तीसगढ़ में लोगों को नशे से बचाने के लिए बड़ी कड़ी मेहनत करने की जरूरत है। कर्जमाफी जैसे खर्चीले फैसले करने की वजह से सरकार आज कमाई का एक मोटा जरिया तुरंत छोडऩा भी नहीं चाहेगी, और नई कांग्रेस सरकार का यह भी मानना है कि रातोंरात नशाबंदी करके प्रदेश को नोटबंदी जैसे नुकसान में नहीं डाला जा सकता। देश में नशे के ताजा आंकड़ों को देखते हुए छत्तीसगढ़ सरकार को अपनी शराब कारोबार, और नशामुक्ति अभियान की नीतियों को बारीकी से देखने की जरूरत भी है।