भारत में सनसनीखेज भांडाफोड़ करने वाले एक समाचार वेबसाईट कोबरापोस्ट ने एक ताजा मामला सामने रखा है जिसमें एक कंस्ट्रक्शन कंपनी डीएचएफएल को बैंकों द्वारा करीब एक लाख करोड़ रूपए का कर्ज देने, और कंपनी द्वारा उसका एक तिहाई हिस्सा दूसरी कंपनियों में अफरा-तफरी कर देने और कर्ज को पूरा डुबा देने की बात कही गई है। इसके दस्तावेज भी सामने रखे गए हैं जो बताते हैं कि किस तरह देश के निजी और राष्ट्रीयकृत बैंकों ने इस कंपनी को झूम-झूमकर लोन दिया था, और उसने किस संगठित जुर्म की तरह उस पैसे की अफरा-तफरी कर दी। यह मामला हो सकता है कि पहले से सरकार की जानकारी में हो, और यह भी हो सकता है कि इस भांडाफोड़ से कई नई बातें सरकार की जानकारी में आएं, लेकिन हैरानी इस बात की होती है कि केन्द्र सरकार और आरबीआई की कड़ी निगरानी में चलती भारत की बैंकिंग में इतने बड़े-बड़े घोटाले हो रहे हैं, और इनमें बड़े-बड़े बैंक अफसर शामिल मिल रहे हैं, और यह सिलसिला बरसों से चले आ रहा है।
हम बैंकों के कर्ज के नाम पर हो रहे घोटालों को लेकर केन्द्र की किसी एक सरकार पर तोहमत लगाना नहीं चाहते, कि ये कर्ज यूपीए के समय के दिए हुए थे, या एनडीए के समय के, या बैंकों ने कर्ज देने के बाद डुबाने के लायक रियायतें कब की थीं, ऐसी बहुत सी बातें तो जांच में साबित होंगी, लेकिन जिस तरह दोनों सरकारों के करीबी रहे हुए लोग लाखों-करोड़ रूपए का कर्ज लेकर या तो देश छोड़कर भाग जाते हैं, या फिर देश के भीतर ही दीवालिया होकर बैठ जाते हैं, वह एक राष्ट्रीय नुकसान की फिक्र है, और उसे राजनीतिक तोहमतों से ऊपर भी देखना चाहिए। आज जब हिन्दुस्तान में संपन्न तबका गरीब किसानों की कर्जमाफी को लेकर बौखलाया हुआ है, तब यह भी समझने की जरूरत है कि गिने-चुने कुछ दर्जन लोगों के कर्ज क्या इतने बड़े नहीं हैं कि वे करोड़ों किसानों की कर्जमाफी से अधिक हैं?
भारत में बैंकों का संगठित अपराध देखने लायक है। कुछ कारोबारी कर्ज को खा लेने की नीयत से कर्ज लेते हैं, और कुछ बैंक अफसर शुरू से ही इस साजिश में शामिल रहते हैं, या फिर वे बाद में इसे दबाने-छुपाने में जुट जाते हैं। दिक्कत यह है कि बैंकों के जुर्म वहां का मैनेजमेंट तब तक छुपाए रखता है जब तक कि वह खुद होकर उजागर न हो जाए। कर्ज की रिकवरी के नाम पर बैंक और कर्ज डुबाते जाते हैं, और सोचे-समझे बैंक डिफाल्टरों को और आगे बढ़ाते जाते हैं। भारत के बैंकिंग कानून में एक फेरबदल करके जिम्मेदार और साजिश में भागीदार बैंक अफसरों के लिए कड़ी सजा का इंतजाम जब तक नहीं होगा, तब तक बैंकों में जनता के पैसे ऐसे ही डूबते रहेंगे। भारत में एक के बाद एक वित्तमंत्री ऐसे आते जा रहे हैं जो बड़ी-बड़ी कंपनियों, शेयर बाजार, और बैंकिंग, इन तीनों के जुर्म से बड़ी अच्छी तरह वाकिफ हैं, और अदालतों में ऐसे मुजरिमों की वकालत करते भी आए हैं। इसके बावजूद अगर ऐसे बड़े आर्थिक अपराध इस देश में जारी हैं, तो वे सत्ता की सहमति या अनदेखी के बिना नहीं हो सकते।
हम बैंकों के कर्ज के नाम पर हो रहे घोटालों को लेकर केन्द्र की किसी एक सरकार पर तोहमत लगाना नहीं चाहते, कि ये कर्ज यूपीए के समय के दिए हुए थे, या एनडीए के समय के, या बैंकों ने कर्ज देने के बाद डुबाने के लायक रियायतें कब की थीं, ऐसी बहुत सी बातें तो जांच में साबित होंगी, लेकिन जिस तरह दोनों सरकारों के करीबी रहे हुए लोग लाखों-करोड़ रूपए का कर्ज लेकर या तो देश छोड़कर भाग जाते हैं, या फिर देश के भीतर ही दीवालिया होकर बैठ जाते हैं, वह एक राष्ट्रीय नुकसान की फिक्र है, और उसे राजनीतिक तोहमतों से ऊपर भी देखना चाहिए। आज जब हिन्दुस्तान में संपन्न तबका गरीब किसानों की कर्जमाफी को लेकर बौखलाया हुआ है, तब यह भी समझने की जरूरत है कि गिने-चुने कुछ दर्जन लोगों के कर्ज क्या इतने बड़े नहीं हैं कि वे करोड़ों किसानों की कर्जमाफी से अधिक हैं?
भारत में बैंकों का संगठित अपराध देखने लायक है। कुछ कारोबारी कर्ज को खा लेने की नीयत से कर्ज लेते हैं, और कुछ बैंक अफसर शुरू से ही इस साजिश में शामिल रहते हैं, या फिर वे बाद में इसे दबाने-छुपाने में जुट जाते हैं। दिक्कत यह है कि बैंकों के जुर्म वहां का मैनेजमेंट तब तक छुपाए रखता है जब तक कि वह खुद होकर उजागर न हो जाए। कर्ज की रिकवरी के नाम पर बैंक और कर्ज डुबाते जाते हैं, और सोचे-समझे बैंक डिफाल्टरों को और आगे बढ़ाते जाते हैं। भारत के बैंकिंग कानून में एक फेरबदल करके जिम्मेदार और साजिश में भागीदार बैंक अफसरों के लिए कड़ी सजा का इंतजाम जब तक नहीं होगा, तब तक बैंकों में जनता के पैसे ऐसे ही डूबते रहेंगे। भारत में एक के बाद एक वित्तमंत्री ऐसे आते जा रहे हैं जो बड़ी-बड़ी कंपनियों, शेयर बाजार, और बैंकिंग, इन तीनों के जुर्म से बड़ी अच्छी तरह वाकिफ हैं, और अदालतों में ऐसे मुजरिमों की वकालत करते भी आए हैं। इसके बावजूद अगर ऐसे बड़े आर्थिक अपराध इस देश में जारी हैं, तो वे सत्ता की सहमति या अनदेखी के बिना नहीं हो सकते।