तीन राज्यों में कांग्रेस घोषणापत्र के मुताबिक किसानों की कर्जमाफी को लेकर गैरकिसान-हिन्दुस्तान हिल सा गया है, खासकर संपन्न, शहरी, शिक्षित लोग। सोशल मीडिया देश के बड़े-बड़े उद्योगपतियों, बड़े-बड़े अर्थशास्त्रियों और मोदीप्रेमी स्तंभकारों के लिखे से भरा हुआ है कि राहुल गांधी देश का सबसे बड़ा आर्थिक राक्षस साबित हो रहा है। बात सही है कि जब सरकार को टैक्स का पैसा किसी एक तबके से मिलता है, और जब उससे किसी दूसरे तबके को राहत दी जाती है, तो टैक्स देने वाले को दर्द जायज है। लेकिन समझने की बात यह है कि क्या कारखानों और कारोबार को सरकार से किसी तरह की टैक्स रियायत नहीं मिलती? क्या उन्हें जमीन, पानी पर सरकार से रियायत नहीं मिलती? क्या उन्हें सड़कों से अपना माल लाने ले जाने की छूट नहीं मिलती? क्या उन्हें सरकार के तरह-तरह के अनुदान नहीं मिलते? क्या कारोबारी बैंकों का कर्ज नहीं डुबाते?
ऐसे अनगिनत सवालों को सुलझाने की कोशिश जब करें, तो पहली नजर में ही दिखता है कि देश में बड़े-बड़े, मंझले, और छोटे कारोबारियों के पास बैंकों का जितना कर्ज डूबा है, वह किसानी कर्ज की माफी के मुकाबले कई गुना अधिक है। दूसरी तरफ किसानी कर्ज में लोगों को एक लाख-दो लाख रूपए जैसी कर्जमाफी मिलती है, और कारखानेदारों को सौ-दो सौ करोड़ से लेकर दसियों हजार करोड़ तक डुबाकर भी न फांसी लगाने की नौबत मिलती, और न ही जेल जाने की। दीवालिया कारोबारी मजे से जी सकते हैं, और अपना छुपाया हुआ पूंजी निवेश देश-विदेश में खर्च कर सकते हैं। ऐसे में अनाज, फल-सब्जी, दूध पैदा करने वाले किसानों को जिंदा रहने के लिए अगर सरकारी अनुदान, सरकारी मदद मिलती है, तो उससे संपन्न लोगों के कलेजे इसलिए नहीं जलने चाहिए कि अगर इस देश में घाटे का धंधा हो चुकी किसानी को लोग छोड़ते चलेंगे, तो फिर देश के लिए अनाज, शक्कर, दाल और तेल आयात करना होगा, देश में उत्पादन और घट जाएगा, और आत्मनिर्भरता खत्म हो जाएगी, और आज जिस तरह बेकाबू दाम पर पेट्रोलियम खरीदा जा रहा है, उसी तरह के बेकाबू दाम पर खाना आयात होगा।
हिन्दुस्तान में उद्योग धंधे चलाकर कमाने वाले लोग इस बात को भूल जाते हैं कि देश की जमीन, उसके पानी, और उसकी हवा पर हर नागरिक का हक है, खदानों पर हर नागरिक का हक है, और सरकार जब गरीबों को कोई अनुदान देती है, रियायत देती है, या कर्जमाफी देती है, तो वह उसी हक का एक भुगतान होता है। इस देश में मदद पाने वाले किसान भीख नहीं पा रहे हैं, वे फसल के उस दाम को पा रहे हैं जिसे सरकारें वक्त पर नहीं देती हैं, और फिर कर्जमाफी की शक्ल में देने को तैयार होती हैं। लोगों को यह समझने की जरूरत है कि कर्जमाफी स्थायी इलाज नहीं है, लेकिन यह जिंदा रहने के लिए आग बुझाने जैसा एक इलाज है जिसमें बहुत किफायत नहीं बरती जा सकती। आग बुझाने के लिए कितनी दमकल गाडिय़ां लगती हैं, कितना पानी लगता है, इसकी कोई सीमा नहीं होती। आज हिन्दुस्तान के किसान की जिंदगी में ऐसी ही आग लगी हुई है क्योंकि सरकार ने उसके कारोबार को एक जायज बाजार देने में कामयाबी नहीं पाई है, और उसकी उपज रस्ते का माल सस्ते में के अंदाज में बिकने को मजबूर है। देश की ग्रामीण और खेतिहर अर्थव्यवस्था की आर्थिक स्वावलंबता बनाए रखने के लिए सरकार को न्यूनतम समर्थन मूल्य को तर्कसंगत और न्यायसंगत करना होगा, इसके लिए सरकार को किसानी के साथ-साथ दूसरे छोटे-छोटे उत्पादक कामों को बढ़ावा देना होगा, और उससे बने और उगे सामानों के लिए बाजार का ढांचा बनाना होगा। जिस तरह सरकारें विशेष आर्थिक जोन बनाती हैं, औद्योगिक परिक्षेत्र बनाती हैं, उसी तरह उन्हें किसानी, ग्रामीण अर्थव्यवस्था, डेयरी जैसे कामों के लिए भी ऐसा ढांचा बनाना पड़ेगा कि हर कुछ बरस बाद कर्जमाफी की नौबत न आए। लेकिन जब तक सरकारें ऐसा नहीं कर पाती हैं, किसानों को ऐसी मदद जायज है, और ऐसी कर्जमाफी देने वाले राहुल गांधी को राक्षस करार देने वालों को भारत की गरीब-अर्थव्यवस्था की कोई समझ नहीं है। जिनकी पूरी जिंदगी बड़े कारोबारियों के बीच गुजरी है, या शेयर मार्केट की कमाई के बीच गुजरी है, उन्हें देश की धड़कन चलाने के लिए अनाज उगाने वाले के दर्द की कोई समझ नहीं हो सकती। भारत को चलाने वाले लोगों के बीच भारत के पेट की एक बेहतर समझ होना जरूरी है, जो कि आज दिख नहीं रही है। इस देश में आज वित्तमंत्री की सारी काबिलीयत एक टैक्स वकील की है, जो कि खरबपतियों से नीचे किसी को बचाना नहीं जानता। ऐसे में जाहिर है कि कर्जमाफी उसे मंजूर नहीं हो सकती, और वह बाकी सरकार को भी इसके खिलाफ बनाए रख सकता है।
ऐसे अनगिनत सवालों को सुलझाने की कोशिश जब करें, तो पहली नजर में ही दिखता है कि देश में बड़े-बड़े, मंझले, और छोटे कारोबारियों के पास बैंकों का जितना कर्ज डूबा है, वह किसानी कर्ज की माफी के मुकाबले कई गुना अधिक है। दूसरी तरफ किसानी कर्ज में लोगों को एक लाख-दो लाख रूपए जैसी कर्जमाफी मिलती है, और कारखानेदारों को सौ-दो सौ करोड़ से लेकर दसियों हजार करोड़ तक डुबाकर भी न फांसी लगाने की नौबत मिलती, और न ही जेल जाने की। दीवालिया कारोबारी मजे से जी सकते हैं, और अपना छुपाया हुआ पूंजी निवेश देश-विदेश में खर्च कर सकते हैं। ऐसे में अनाज, फल-सब्जी, दूध पैदा करने वाले किसानों को जिंदा रहने के लिए अगर सरकारी अनुदान, सरकारी मदद मिलती है, तो उससे संपन्न लोगों के कलेजे इसलिए नहीं जलने चाहिए कि अगर इस देश में घाटे का धंधा हो चुकी किसानी को लोग छोड़ते चलेंगे, तो फिर देश के लिए अनाज, शक्कर, दाल और तेल आयात करना होगा, देश में उत्पादन और घट जाएगा, और आत्मनिर्भरता खत्म हो जाएगी, और आज जिस तरह बेकाबू दाम पर पेट्रोलियम खरीदा जा रहा है, उसी तरह के बेकाबू दाम पर खाना आयात होगा।
हिन्दुस्तान में उद्योग धंधे चलाकर कमाने वाले लोग इस बात को भूल जाते हैं कि देश की जमीन, उसके पानी, और उसकी हवा पर हर नागरिक का हक है, खदानों पर हर नागरिक का हक है, और सरकार जब गरीबों को कोई अनुदान देती है, रियायत देती है, या कर्जमाफी देती है, तो वह उसी हक का एक भुगतान होता है। इस देश में मदद पाने वाले किसान भीख नहीं पा रहे हैं, वे फसल के उस दाम को पा रहे हैं जिसे सरकारें वक्त पर नहीं देती हैं, और फिर कर्जमाफी की शक्ल में देने को तैयार होती हैं। लोगों को यह समझने की जरूरत है कि कर्जमाफी स्थायी इलाज नहीं है, लेकिन यह जिंदा रहने के लिए आग बुझाने जैसा एक इलाज है जिसमें बहुत किफायत नहीं बरती जा सकती। आग बुझाने के लिए कितनी दमकल गाडिय़ां लगती हैं, कितना पानी लगता है, इसकी कोई सीमा नहीं होती। आज हिन्दुस्तान के किसान की जिंदगी में ऐसी ही आग लगी हुई है क्योंकि सरकार ने उसके कारोबार को एक जायज बाजार देने में कामयाबी नहीं पाई है, और उसकी उपज रस्ते का माल सस्ते में के अंदाज में बिकने को मजबूर है। देश की ग्रामीण और खेतिहर अर्थव्यवस्था की आर्थिक स्वावलंबता बनाए रखने के लिए सरकार को न्यूनतम समर्थन मूल्य को तर्कसंगत और न्यायसंगत करना होगा, इसके लिए सरकार को किसानी के साथ-साथ दूसरे छोटे-छोटे उत्पादक कामों को बढ़ावा देना होगा, और उससे बने और उगे सामानों के लिए बाजार का ढांचा बनाना होगा। जिस तरह सरकारें विशेष आर्थिक जोन बनाती हैं, औद्योगिक परिक्षेत्र बनाती हैं, उसी तरह उन्हें किसानी, ग्रामीण अर्थव्यवस्था, डेयरी जैसे कामों के लिए भी ऐसा ढांचा बनाना पड़ेगा कि हर कुछ बरस बाद कर्जमाफी की नौबत न आए। लेकिन जब तक सरकारें ऐसा नहीं कर पाती हैं, किसानों को ऐसी मदद जायज है, और ऐसी कर्जमाफी देने वाले राहुल गांधी को राक्षस करार देने वालों को भारत की गरीब-अर्थव्यवस्था की कोई समझ नहीं है। जिनकी पूरी जिंदगी बड़े कारोबारियों के बीच गुजरी है, या शेयर मार्केट की कमाई के बीच गुजरी है, उन्हें देश की धड़कन चलाने के लिए अनाज उगाने वाले के दर्द की कोई समझ नहीं हो सकती। भारत को चलाने वाले लोगों के बीच भारत के पेट की एक बेहतर समझ होना जरूरी है, जो कि आज दिख नहीं रही है। इस देश में आज वित्तमंत्री की सारी काबिलीयत एक टैक्स वकील की है, जो कि खरबपतियों से नीचे किसी को बचाना नहीं जानता। ऐसे में जाहिर है कि कर्जमाफी उसे मंजूर नहीं हो सकती, और वह बाकी सरकार को भी इसके खिलाफ बनाए रख सकता है।