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प्रतिस्पर्धा की दौड़ में जान गंवाते बच्चे - डॉ. संजय शुक्ला

सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान के कोटा शहर में छात्रों के बढ़ते आत्महत्या के मामलों से संबंधित एक याचिका पर सुनवाई के दौरान कहा कि बच्चों द्वारा किए जा रहे खुदकुशी के लिए कोचिंग सेंटर्स नहीं बल्कि अभिभावकों का दबाव जिम्मेदार है।अदालत ने कहा कि माता-पिता अपने बच्चों से उनकी क्षमता से ज्यादा उम्मीद लगा लेते हैं फलस्वरूप बच्चे प्रतिस्पर्धा के दबाव में आत्मघाती कदम उठा रहे हैं। अदालत ने सरकारी शिक्षा व्यवस्था पर भी टिप्पणी किया है। गौरतलब है कि देश के कोचिंग हब कोटा में मेडिकल और जे‌ई‌ई के दाखिला परीक्षाओं की तैयारी में लगे छात्रों के खुदकुशी के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। आंकड़ों के मुताबिक अकेले इस  शहर में बीते दस सालों में कोचिंग लेने वाले लगभग 150 से ज्यादा छात्रों ने खुदकुशी की है। इस साल 2023 में अब तक 23 छात्रों ने आत्महत्या कर लिया है जो बीते 8 सालों के दौरान सर्वाधिक है। कोटा पुलिस के अनुसार साल 2015 में 17, साल 2016 में 16,साल 2017 में 7, साल 2018 में 20 तथा 2019 में 8 छात्रों द्वारा खुदकुशी के मामले दर्ज किए गए थे। 

                बहरहाल यह आंकड़े अपने माता -पिता के "स्टेटस टैग" बरकरार रखने के जद्दोजहद में जान देने वाले उन बच्चों के अभिभावकों के लिए नसीहत है जो अपनी अपेक्षाओं और जिद्द का जबरिया बोझ बच्चों पर लाद रहे हैं। भारत युवा राष्ट्र है जहां युवाओं की आबादी पूरी दुनिया में सर्वाधिक है लेकिन विचलित करने वाली बात यह कि इस जनसंख्या का बड़ा हिस्सा निराशा और अवसाद से ग्रस्त होकर खुदकुशी के लिए विवश हो रहा है। दुखद यह  कि उस भारत की तस्वीर है जिसके युवा पूरी दुनिया में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा रहे हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो 'एनसीआरबी' के अनुसार देश में आत्महत्या के कुल मामलों में 40 फीसदी संख्या 18 से 35 साल के युवाओं की है। अलबत्ता छात्रों द्वारा आत्महत्या की घटनाएं केवल कोटा शहर में ही नहीं हो रही है बल्कि देश के अनेक आईआईटी, मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेजों में भी ऐसी घटनाएं लगातार हो रही है।जानकारी के मुताबिक बीते आठ बरसों में आईआईटी जैसे प्रतिष्ठित उच्च शिक्षा संस्थानों में 35 छात्रों ने आत्महत्या की है।एनसीआरबी के रिपोर्ट के मुताबिक छात्रों की आत्महत्या का आंकड़ा 2021से हर साल 13 हजार के उपर बना हुआ है और यह 4 फीसदी प्रतिवर्ष की दर से बढ़ रहा है। साल 2017 से 2021के बीच छात्रों आत्महत्या के मामले में 32 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है।अपनी मेहनत, काबिलियत और कठिन इम्तिहान के जरिए इन संस्थानों में दाखिला लेने वाले प्रतिभाएं जिनके सामने देश और विदेश में आकर्षक नौकरियों की कतार है वे जिंदगी का जंग क्यों हार रहे हैं ? इस सवाल का हल सरकार और समाज को ढूंढना ही होगा। आखिरकार यह देश के सबसे बड़े वर्कफोर्स से जुड़ा मसला है। 

छात्रों द्वारा किए जा रहे खुदकुशी के आंकड़े सिर्फ एक संख्या भर नहीं है बल्कि यह इकलौते संतान वाले परिवारों के लिए दुख का पहाड़ है। मनोविज्ञानियों की मानें तो अनावश्यक प्रतिस्पर्धा के दौर में अधिकांश छात्र अवसाद और कुंठा से घिर रहे हैं। अभिभावकों की इच्छा पर कोचिंग फैक्ट्री में दाखिला लेने वाले छात्र भावनात्मक सहयोग और संवाद के अभाव में मौत को गले लगा रहे हैं। अलबत्ता हाल के बरसों में बेरोजगार युवाओं के भी खुदकुशी के आंकड़े बढ़े हैं। छात्रों द्वारा किए जा रहे आत्महत्या के कारणों पर गौर करें तो इसके लिए मुख्य रूप से गलाकाट प्रतिस्पर्धा, बच्चों से अभिभावकों की बढ़ती अपेक्षा,शिक्षा में असमानता, भाषा की अड़चन, संसाधनों की कमी, सिलेबस का बोझ, फैकल्टी के साथ संवाद में कमी, मनोविज्ञानियों की अनुपलब्धता,जातिगत व लैंगिक भेदभाव और आर्थिक व सामाजिक विषमता, बेरोजगारी , पारिवारिक समस्या और नशाखोरी जैसी परिस्थितियां जिम्मेदार हैं। गौरतलब है कि बीते दो दशक के दौरान प्रोफेशनल कोर्सेज में गलाकाट प्रतिस्पर्धा बढ़ी है वहीं महानगरों से लेकर छोटे शहरों में इन कोर्सेज में प्रवेश परीक्षाओं की तैयारी के लिए कोचिंग संस्थान भी बड़ी संख्या में खुले हैं। भारत में कोचिंग अब एक उद्योग का स्वरूप ले चुका है जिसका बाजार लगभग साढ़े पांच लाख करोड़ का है।

    राजस्थान के कोटा शहर की पहचान पूरे देश में कोचिंग राजधानी के तौर पर है जहां विभिन्न हिस्सों से छात्र मेडिकल और इंजीनियरिंग कोर्सेज में दाखिला का अरमान लेकर यहां आते हैं। आंकड़ों के मुताबिक कोटा के विभिन्न संस्थानों में रिकॉर्ड दो लाख छात्र नामांकित हैं और दाखिला परीक्षाओं की तैयारी कर रहे हैं। इस बीच विचारणीय है कि कुछ अभिभावक अपने 'स्टेटस टैग' बरकरार रखने और कुछ अपने बच्चों को यह टैग हासिल करवाने के लिए यहां की भीड़ में छोड़ जाते हैं।विडंबना है कि अभिभावक अपने बच्चों की प्रतिभा और अभिरूचियों की आंकलन की जगह अपनी अपेक्षाओं को उनके उपर लाद रहे हैं। जबरिया अपेक्षाओं का बोझ लादे बच्चे अनजान शहर और परिवेश में अपने आपको ढाल नहीं पा रहे हैं फलस्वरूप परीक्षा में असफल होने और पालकों के अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर पाने के के डर और आत्मग्लानि में बच्चे अवसाद ग्रस्त होकर खुदकुशी कर रहे है। बेहतर होगा कि अभिभावक अपने बच्चों को पर्याप्त समय दें तथा अपनी अपेक्षाएं लादने के बजाय बच्चे के हुनर और योग्यता को प्रोत्साहित करें।

      मनोवैज्ञानिकों के मुताबिक आत्महत्या के लिए अवसाद यानि डिप्रेशन सबसे बड़ा कारण है। सामान्य तौर पर खुद मनोरोगी और अभिभावक या परिजन मानसिक रोग के लक्षणों और कारणों से अनजान रहता है। पढ़ने वाले बच्चों के मामले में अभिभावकों की जवाबदेही है कि वे अपने बच्चों में अवसाद के लक्षण को तुरंत पहचानें और मनोरोग विशेषज्ञों से परामर्श लें। आमतौर पर अवसाद के मुख्य लक्षण बार- बार  गुस्सा या दुखी होकर रोना, झूठ बोलना, अपराध बोध, असंतुष्टि, पारिवारिक और सामाजिक गतिविधियों में अरूचि, अनिद्रा या बहुत नींद आना, बेचैनी,वजन घटना या बढ़ना, एकाग्रता का आभाव, अकेले रहना और बार-बार खुदकुशी के बारे में ख्याल आना है। अवसाद के उपचार में काउंसिलिंग, पारिवारिक और भावनात्मक लगाव, खेल और मनोरंजन गतिविधियों में शामिल होना, मादक पदार्थों का त्याग और व्यायाम, योग, ध्यान और प्रार्थना जैसे उपाय कारगर हैं।

छात्रों में बढ़ रहे खुदकुशी के मामलों पर कोचिंग संस्थानों को भी बहुत ज्यादा सजग और संवेदनशील होने की आवश्यकता है। सरकार को इन संस्थानों में अनिवार्य रूप से काउंसलर्स की उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए जरूरी उपाय सुनिश्चित करना चाहिए इसके अलावा संस्थान की जवाबदेही है कि वे बच्चों के साथ निरंतर संवाद करे और जिन बच्चों में अवसाद के लक्षण मिल रहे हैं उनके संबंध में अतिरिक्त सावधानी बरतते हुए अभिभावकों को सूचित करें। प्रतिस्पर्धा की दौड़ में जिंदगी का जंग हारने के पीछे एक अहम कारण हमारी स्कूली शिक्षा भी है जिस पर सरकार को गंभीरता पूर्वक विचार करना होगा। देश में शिक्षा में व्यापक असमानता है जो अमीरी और गरीबी के बीच बंटी हुई है। एक ओर बदहाल सरकारी स्कूल हैं जहां शिक्षा से संबंधित मानव संसाधन और बुनियादी सुविधाओं का आभाव ह वहीं दूसरी ओर साधन संपन्न पांच सितारा निजी स्कूल हैं जहां के बच्चे आज की प्रतिस्पर्धा के लिए पहले से ही तैयार हैं। सरकार और समाज को शिक्षा के इस असमानता को दूर करना चाहिए ताकि आर्थिक तंगी के चलते गरीब बच्चों के मेधा का क्षरण न हो। किसी भी राष्ट्र और समाज के लिए उसकी सबसे बड़ी पूंजी "छात्र" होते हैं जिस पर उसका वर्तमान और भविष्य निर्भर होता है। अभिभावकों और परिवार की जवाबदेही है कि वह देश के इस भविष्य के साथ  निरंतर संवाद स्थापित करे और उनके समस्याओं के प्रति संवेदनशील बनें ताकि कोई भी छात्र जिंदगी का जंग न हारे। 


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