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झारखंड का यह चुनाव तो आकर चला जाएगा, लेकिन यह बात...

नागिरकता संशोधन विधेयक के खिलाफ देश में कई जगहों पर हिंसक प्रदर्शन चल रहे हैं, और बहुत से ऐसे राज्य हैं जहां मुख्यमंत्रियों ने यह खुली घोषणा की है कि उनके राज्य में इसे लागू नहीं किया जाएगा। वैसे यह एक अलग बहस का मुद्दा है कि संसद से बना यह कानून लागू करना या न करना क्या राज्य के हाथ में है? लेकिन वह बहस आज यहां पर फिक्र का मुद्दा नहीं है, फिक्र का मुद्दा एक दूसरी बात है कि देश भर में नागरिकता पर मंडराते खतरे को लेकर लोगों के बीच जो दहशत है, देश भर में जो अनिश्चितता है, और दसियों करोड़ लोगों की ऐसी अनिश्चिचता के खिलाफ देश के एक दूसरे बहुसंख्यक तबके में जिस तरह का उन्माद भरा उल्लास है, उन दोनों को एक साथ देखें, तो यह एक बड़ी फिक्र की बात है। कुछ जगहों पर ट्रेन और बसों के जलने को न भी गिनें, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और जामिया मिलिया के छात्रों के आक्रोश को न भी गिनें, तो भी देश में एक बहुत बड़े आकार के अल्पसंख्यक तबके में दहशत को न गिन पाना तो मुमकिन नहीं है। और उत्तर-पूर्व के राज्यों में यह खासकर दिख रहा है कि जनता किस दहशत में है। दूसरी तरफ एनडीए के भीतर कल तक के, और आज के भाजपा के जो सहयोगी दल नागरिकता संशोधन को अपने दिए हुए समर्थन के बाद अब फिर से सोच रहे हैं, अपना इरादा बदल रहे हैं, उनकी सोच को भी देखने की जरूरत है। लेकिन आज यहां लिखने की वजह इन सबसे कुछ अलग है। झारखंड में विधानसभा चुनावों की एक सभा में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मंच और माईक पर से नागरिकता संशोधन के खिलाफ प्रदर्शन करने वालों के बारे में कहा कि ये जो आग लगा रहे हैं, ये कौन हैं, उनके कपड़ों से ही पता लग जाता है। 

यह बात सही है कि प्रधानमंत्री देश के प्रधानमंत्री रहते हुए भी एनडीए के अगुवा हैं, और भाजपा के सबसे बड़े नेता भी हैं। किसी राज्य में जहां पार्टी की सरकार चल रही है, और चुनावों में उसके जाने का खतरा दिख रहा है, वहां पर चुनाव प्रचार के दौरान कई किस्म की उत्तेजक, भड़काऊ, या आधी और पूरी झूठ बातें कही जाती हैं। ऐसा करने वाले नरेन्द्र मोदी न पहले नेता होंगे, और न आखिरी। लेकिन जब देश का प्रधानमंत्री आज देश में जलते-सुलगते कई प्रदेशों के नक्शे के बीच खड़े होकर, और दसियों करोड़ लोगों की दहशत से बात करते हुए यह कहे कि जो आग लगा रहे हैं उनके कपड़ों से ही उनकी शिनाख्त हो जा रही है, तो यह बात जितना हक्का-बक्का करती है, उससे अधिक सदमा पहुंचाती है। क्या इस विशाल और महान लोकतंत्र के एक प्रधानमंत्री को अपने कार्यकाल के छठवें बरस में एक छोटे से राज्य के विधानसभा चुनाव को जीतने के लिए देश के एक दहशत में जी रहे तबके पर ऐसा हमला करना चाहिए था? चुनाव तो आते-जाते रहते हैं, और राज्यों में किसी पार्टी की सरकारें भी आती-जाती रहती हैं, सवाल यह है कि सवा करोड़ से अधिक आबादी के इस देश के प्रधानमंत्री को क्या अपनी ही आबादी के एक हिस्से के खिलाफ ऐसी बात उस वक्त कहनी चाहिए जब देश धार्मिक और साम्प्रदायिक आधार पर अभूतपूर्व नौबत तक बांट दिया जा चुका है? प्रधानमंत्री का यह बयान उनके एक-एक शब्द पर फिदा, और दीवानगी की हद तक उनके साथ खड़े हुए करोड़ों भक्तों पर कैसा असर डालेंगे इसकी कल्पना करना क्या मुश्किल है? यह देश आज जिस हद तक अलगाव का तनाव झेल रहा है, क्या उसे और बढ़ाने का खतरा महज एक चुनाव को जीतने के लिए कोई अच्छी बात है? 
लोकतंत्र में चुनावी जीत-हार तो होती रहती है, लेकिन एक देश के प्रधानमंत्री को अपने देश के ऐसे बुरे संकटकाल में एक जिम्मेदारी पूरी तरह से छोड़ नहीं देनी चाहिए। दो दिन पहले जब प्रधानमंत्री किसी सार्वजनिक जगह पर सीढ़ी पर उलझकर गिर पड़े थे, तो बहुत से लोगों ने उसे लेकर ओछे मजाक किए थे, और दूसरे समझदार लोगों ने यह नसीहत दी थी कि देश के प्रधानमंत्री के बारे मेें लिखते हुए एक गरिमा का ध्यान रखना चाहिए। उन लोगों ने ठीक नसीहत दी थी, सीढ़ी पर उलझकर गिर जाना किसी के भी साथ हो सकता है, और कोई भी लोग कमजोरी या बीमारी में चक्कर खाकर गिर सकते हैं, ऐसी नौबत का मखौल उड़ाना एक घटिया और गंदी बात है, और चाहे ताजा इतिहास में बड़े-बड़े लोगों ने भी ऐसी बात क्यों न की हुई हो। लेकिन प्रधानमंत्री के ओहदे के साथ जिस गरिमा का ख्याल रखने की नसीहत अभी हवा में तैर ही रही है, उस गरिमा को एक चुनावी आमसभा में खत्म कर देना भी कोई अच्छी बात नहीं है। आज देश का एक प्रधानमंत्री किसी धर्म से जुड़े हुए लोगों के कपड़ों की तरफ इशारा करे, कल कोई दूसरा प्रधानमंत्री किसी दूसरे धर्म के लोगों की दूसरी बातों की तरफ इशारा करे, तो फिर प्रधानमंत्री के ओहदे को मखौल से परे मानने और रखने का कौन सा तर्क जायज रह जाएगा? झारखंड का चुनावी नतीजा चाहे जो हो, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नाम के साथ दर्ज यह बात हिन्दुस्तान की आज की तारीख में बहुत ही तकलीफदेह और नुकसानदेह है, और लोकतंत्र सब कुछ दर्ज करते चलता ही है।  
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