किसी मुद्दे पर खूब लंबा लिखने के अगले ही दिन फिर उस मुद्दे पर लिखना पढऩे वालों के साथ कुछ ज्यादती होती है। लेकिन ऐसा भी लग रहा है कि किसी बहुत जटिल मुद्दे के कुछ पहलू हमेशा ही बाकी रहते हैं जो कि अगले दिन के बाकी दुनिया के मुद्दों के मुकाबले अधिक मायने रखते हैं, इसलिए हैदराबाद की कल की मुठभेड़ मौतों/हत्याओं के कुछ पहलुओं पर आज फिर। कल दोपहर इसी जगह इस पर लिखने के बाद जो खबरें आईं, उनमें यह भी थी कि हैदराबाद मुठभेड़ के मुखिया अफसर ने पहले कम से कम दो और ऐसी मुठभेड़ों में अगुवाई की थी जिनमें गिरफ्तार आरोपियों को ठीक इसी अंदाज में फरार होने की कोशिश करते, और पुलिस पर हमला करते दिखाकर मारा गया था। हैदराबाद की पुलिस जो बलात्कार और हत्या की शिकार युवती के परिवार को इधर-उधर दौड़ाने के एवज में खलनायक बनी हुई थी, वह दो दिन के भीतर नायक बन गई, उस पर फूल बरसने लगे, उसे राखियां बंधने लगीं, और देश भर में लोग बाकी प्रदेशों की पुलिस को ताने कसने लगे कि उन्हें हैदराबाद की पुलिस से कुछ सीखना चाहिए। देश का माहौल मौके पर बंदूक की नली से इंसाफ का इस कदर हिमायती हो गया कि कानून की राह अपनाने की अपील करने वाले लोग एक पल में खलनायक लगने लगे, और उन्हें ताने मिलने लगे कि उनकी बेटियों के साथ ऐसा होगा, तब पता लगेगा। बहुत से अफसरों ने, और आईपीएस अफसरों ने हैदराबाद पुलिस की आलोचना के खिलाफ लिखा, लेकिन ईमानदारी से कहें, तो कई ऐसे आईपीएस रहे जिन्होंने हैदराबाद पुलिस के मुठभेड़ के तरीकों पर सवाल भी उठाए, और कहा कि देर से मिला इंसाफ जिस तरह नाइंसाफी होती है, उसी तरह मौके पर किया गया इंसाफ, इंसाफ को दफन करना भी होता है। एक महिला आईपीएस ने लिखा कि मुठभेड़ के बाद मनाई जाती खुशियां इस देश की न्याय व्यवस्था के मुंह पर तमाचा है, और न्यायिक जवाबदेही आज मौके का तकाजा है। छत्तीसगढ़ से कम से कम एक महिला आईएएस अधिकारी ऐसी थी जिसने ट्वीट करके लिखा कि गलत, बहुत गलत है, और हमेशा गलत रहेगा, कड़ी सजा के लायक रहेगा, पर गलत को गलत तरीके से सजा देना भी क्या सही कहलाएगा? कहीं कल कोई इसका कुछ और गलत करने के लिए फायदा न उठा ले।
लेकिन कल सुबह की पहली खबर के बाद से यह देश एक हर्षोन्माद में डूब गया, और जिस तरह कोई भी उन्माद लोगों से सोचने की ताकत दूर कर देता है, हैदराबाद की मुठभेड़ ने भी लोगों के साथ यही किया। पुलिस की जुबान में जिसे ट्रिगर-हैप्पी कहा जाता है, एनकाऊंटर स्पेशलिस्ट कहा जाता है, वैसी पुलिस ने देश की बदनाम अदालतों को पल भर में और बदनाम करते हुए इंसाफ अपने हाथ में ले लिया, और देश के बड़े-बड़े नेताओं ने, मुख्यमंत्रियों और चर्चित सांसदों ने इसे इंसाफ कहा, इस पर खुशी जाहिर की, और फख्र जताया। जाहिर है कि ऐसे में टीवी चैनल और बड़े कामयाब अखबार भी हर्षोन्माद में डूबे रहे, और बारात में नागिन डांस करने में जुट गए। देश के बड़े-बड़े अखबारों की आज सुबह की सुर्खियां देखें तो वे पुलिस राज में एकदम संतुष्ट दिख रहे हैं, खुश दिख रहे हैं, और गर्व से भरे हुए भी। चूंकि यह पुलिस इमरजेंसी की नहीं है, और अखबारनवीसों को बंद करती हुई नहीं है, इसलिए न्यायमूर्ति पुलिस सुपरिटेंडेंट लोगों को अच्छे लग रहे हैं, वे मीडिया की पसंदीदा न्याय व्यवस्था भी हो गए हैं। देश के सबसे बड़े अखबार के पहले पन्ने की सुर्खी इसका अभिनंदन करते दिख रही है। TODAY छत्तीसगढ़ के WhatsApp ग्रुप में जुड़ने के लिए क्लिक करें
अब तक हिन्दुस्तान में नक्सली यह बात कहते थे कि क्रांति बंदूक की नली से निकलती है। अब आज संसद का एक हिस्सा, विधानसभाओं का एक हिस्सा, और मीडिया का एक बड़ा हिस्सा यह कहने में लग गया है कि हिन्दुस्तान में आज की तारीख में इंसाफ भी बंदूक की नली से ही निकल सकता है। अब सवाल यह उठता है कि जब मौके पर बंदूक की नली से निकला इंसाफ इतने लोगों को इतना सुहा रहा है तो उसमें जरूर सुर्खाब के कुछ पर लगे हुए होंगे, उसमें जरूर कोई ऐसी बड़ी खूबी होगी जो कि बड़ी-बड़ी अदालतों में जादूगरों से लबादे पहने हुए बड़े-बड़े जजों में भी नहीं लगी होती। अब सवाल यह उठता है कि बंदूक की नली से निकला इंसाफ इतना अच्छा है, तो फिर वह पुलिस की बंदूक तक क्यों सीमित रहे? हमने पाकिस्तान से लेकर बांग्लादेश तक, और म्यांमार तक जगह-जगह फौजी बंदूकों का राज देखा है, और वे बंदूकें पुलिस की बंदूकों से बहुत बेहतर भी होती हैं, फौजी वर्दियों पर कलफ भी बेहतर होता है, पीतल के उनके बिल्ले भी अधिक चमकते हैं, और उन्होंने पाकिस्तान की हुकूमत को कई बार चलाकर दिखाया भी है कि बंदूक की नली से निकला इंसाफ किस तरह की जम्हूरियत चला सकता है। हिन्दुस्तान में लोकतंत्र को अगर बंदूक की नली से ही चलाना है, तो फिर अदना सी पुलिस को यह बड़ा सा मौका क्यों दिया जाए? यह काम तो फिर फौज को देना चाहिए जो कि मौके पर लोगों को जीप के सामने बांधकर, ढाल बनाकर ले जाने के लिए भी जानी जाती है, जो हर दूसरे किस्म के जुर्म को भी खास कानूनों की ढाल के पीछे छुपकर करने के लिए भी जानी जाती है। फिर धीमी रफ्तार की, और शायद कई जगहों पर भ्रष्ट भी, अदालतों की भी क्या जरूरत है? सवाल पूछने के लिए रिश्वत मांगने वाली संसद की भी क्या जरूरत है? देश को बेच देने पर आमादा सरकार की भी क्या जरूरत है? जब बंदूक की नली से निकला ही इंसाफ देश में अकेला इंसाफ दिख रहा है, तो फिर बंदूक भी उम्दा छांटी जाए, फौज की छांटी जाए, और धीमी अदालत, भ्रष्ट संसद, दुष्ट सरकार, इन सबको खारिज ही कर दिया जाए।
मौके पर आनन-फानन बंदूक की नली से निकला इंसाफ जिन्हें सुहाता है, वे लोकतंत्र के हकदार भी नहीं रहते। हम इतनी रियायत जरूर देना चाहते हैं कि सामूहिक बलात्कारों और जिंदा जला देने से विचलित यह देश कुछ वक्त के लिए अपनी तर्कशक्ति, न्यायशक्ति खोकर एक तात्कालिक और क्षणिक हर्षोन्माद में अपनी निराशा और तकलीफ को खोने की कोशिश कर रहा है, और देश के बहुत बड़े तबके की इस मौके की प्रतिक्रिया को हम उसकी स्थाई सोच नहीं मानते। आज दूसरे प्रदेशों की पुलिस से लोगों की इस उम्मीद को भी हम स्थाई नहीं मानते कि उन्नाव और बाकी जगहों के बलात्कारियों को भी वहां की पुलिस ऐसे ही मौका-ए-वारदात लेकर जाए, और वहीं पर उनका इंसाफ करे। हम देश की सोच का अतिसरलीकरण करना नहीं चाहते क्योंकि कल सुबह का हर्षोन्माद कुछ लोगों में कल शाम तक ही होश वापिस पाने लगा था, और हमारा ऐसा अंदाज है कि बलात्कारों की भयावहता से ऊबरकर यह देश बंदूक की नली पर आस्था कुछ घटाएगा। देश के लोगों में हिंसा को स्थाई मान लेने जितनी निराशा हममें आज नहीं हैं, लेकिन देश में बड़ा असर रखने वाली मीडिया का पुलिस की इस बारात में इस तरह का नागिन डांस करना बड़ा खतरनाक जरूर लग रहा है। जब इसी अखबार की समाचार की सुर्खी में एक विचार का तडक़ा लगता है, तो वह विचार उस अखबार का अपना विचार छोड़ कुछ नहीं होता, और जब ऐसे विचार लोकतंत्र में घोर अनास्था दिखाते हैं, तो इन अखबारों को उन अखबारों के तजुर्बे भी जानना चाहिए जिन्होंने पाकिस्तान जैसे देश में बंदूक की नली का राज देखा हुआ है। बात पुलिस की बंदूक से फौज की बंदूक तक की नहीं है, यह लोकतंत्र में आस्था खोने की बात है, जिसके बाद मीडिया की न जगह होगी, न ही जरूरत। इसलिए लोकतंत्र से मिली ताकत से जो जिंदा हैं, कम से कम उनको जमीन पर गिरे लोकतंत्र को इस तरह कूद-कूदकर खूंद-खूंदकर नहीं कुचलना चाहिए, और धीमी सही, अदालतों के फैसलों का इंतजार करना चाहिए क्योंकि हमने जो सांसद चुने हैं, वे ऐसे ही चुने हैं जो कि देश में ऐसी ही अदालतों के हिमायती हैं, खाली कुर्सियों के हिमायती हैं, न्यायिक भ्रष्टाचार के हिमायती हैं। इसलिए आखिर में कुल मिलाकर एक साफ बात यह कि लोकतंत्र कतरे-कतरे में न आ सकता, न लागू हो सकता, वह अगर आएगा तो तमाम कतरों में एक साथ ही आएगा, या फिर नहीं आएगा। आज पुलिस बलात्कार के आरोपियों को मौके पर सजा दे रही है, कल वह आपका घर खाली कराने आएगी, और वह वहीं पर इंसाफ करेगी। अपने ऐसे दिन को याद करके ही पुलिस के अभिनंदन के जुलूस में नागिन डांस करें।
दैनिक 'छत्तीसगढ़' का संपादकीय 7 दिसंबर