आए दिन किसी न किसी प्रदेश से किसी विधायक, मंत्री, या सांसद का वीडियो तैरने लगता है जिसमें वे लोगों को धमकाते दिखते हैं, कहीं किसी को लात मारते दिखते हैं, साम्प्रदायिकता की नफरत फैलाते दिखते हैं, और महिलाओं के लिए अपमान की हिंसक बातें करना तो मानो सबसे ही लोकप्रिय काम नेताओं के बीच है। ऐसे में कहीं-कहीं पुलिस में केस दर्ज होता है जो कि ताकतवर के खिलाफ तो एक पूरी पीढ़ी निकल जाने तक नहीं निपट पाता, और कहीं-कहीं पार्टी अपने नेताओं को मामूली सी झिड़की देकर अपने हाथ झाड़ लेती है। लेकिन इससे परे एक संस्था और ऐसी है जिसे अपना घर सुधारने की जरूरत है।
संसद और विधानसभाओं के सदस्य छोटी-छोटी बात पर कहीं किसी अफसर के खिलाफ विशेषाधिकार भंग का मामला ले आते हैं कि उन्हें सुविधा नहीं मिली, कहीं वे किसी अखबार के खिलाफ विशेषाधिकार हनन का मामला सदन में पेश कर देते हैं कि उसमें छपी हुई कोई बात उनका अपमान करती है, या सदन का अपमान करती है। लेकिन क्या कभी संसद और विधानसभाओं जैसे सदन इस बात पर सोचते हैं कि उनके सदस्यों की हरकतें आम जनता का कितना अपमान करती हैं, और इस तरह खुद सदन का कितना अपमान करती हैं? सदन के बाहर के लोगों को नोटिस देकर उनसे माफी मंगवाना तो आसान बात है क्योंकि संसद और विधानसभा को ऐसे विशेषाधिकार मिले हुए हैं कि वे किसी को कैद भी सुना सकते हैं। लेकिन इस तरह बांह मरोड़कर माफी मंगवाने से परे क्या कभी संसद और विधानसभा यह सोचते हैं कि उसके सदस्यों के आचरण से उसकी इज्जत कैसे मिट्टी में मिलती है?
सांसद और विधायक अक्सर ही गाडिय़ों के नंबर प्लेट के नियम तोड़ते हुए, बिना इजाजत सायरन लगाकर उसे बिना जरूरत बजाते हुए दिखते हैं। छोटे पुलिस कर्मचारियों को आतंकित करने के लिए सांसद या विधायक की बड़ी-बड़ी सी तख्तियां लगा दी जाती हैं। और ऐसी तमाम गाडिय़ां संसद और विधानसभाओं के अहातों में पहुंचती भी हैं। हमारा सोचना है कि जिस सदन को भी अपने आपको सम्माननीय बनाकर रखना है, उसे अपने सदस्यों के चाल-चलन, उनके आचरण, और उनके बर्ताव को लेकर जागरूक रहना चाहिए। जब कोई सांसद या विधायक अलोकतांत्रिक या अशोभनीय बर्ताव करते हैं, तो वे सदन का इतना बड़ा अपमान करते हैं जितना कि कोई बाहरी व्यक्ति नहीं कर सकते। हर सदन को ऐसी शिकायत कमेटी भी बनाना चाहिए जिसके सामने आम जनता शिकायत रख सके कि सदन के सदस्यों ने उनके साथ क्या गलत किया है, और उसके सुबूत पेश कर सकें। संसद और विधानसभा अगर अपने आपको विशेषाधिकारों से घिरा हुआ टापू बनाकर बने रहना चाहते हैं, तो उनका सम्मान नहीं हो सकता। वे कड़े कानून बनाकर अपने को सम्मान दिलाने की कोशिश कर सकते हैं, लेकिन जनता के मन से ऐसे लोगों के प्रति सम्मान नहीं निकल सकता जो कि आम लोगों को धकेलते हुए, सायरन बजाते हुए सड़कों से निकलते हैं।
लोकतंत्र में संसद हो, सरकार हो, या न्यायपालिका हो, इन सभी संस्थाओं का दर्जा आम जनता के बुनियादी हक से नीचे ही रहेगा। जनता ही नहीं रहेगी तो लोकतंत्र की ये संस्थाएं क्या खाकर काम करेंगी? ऐसे में अपने आपको जनता की पहुंच से परे रखना, जनता से संवाद न रखना ठीक नहीं है। यह याद रखना चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट में भी जनहित याचिका दायर करने का स्पष्ट प्रावधान है, और देश के बहुत से ऐतिहासिक फैसले जनहित याचिकाओं पर ही हुए हैं। ऐसे में संसद और विधानसभाओं को भी अपने आपको जनहित याचिकाओं के लिए खोलना चाहिए। बहुत से ऐसे मामले हो सकते हैं जिनमें बड़े कारोबारी हित जुड़े हों, और संसद या विधानसभा के सभी या अधिकतर दल उस मामले को न उठाएं। ऐसा राज्य की विधानसभा में अधिक मुमकिन रहता है जहां कम पार्टियां रहती हैं, और कारोबारी दोनों-तीनों पार्टियों को साध लेते हैं। ऐसे में बंधक रखा गए लोकतंत्र को आजाद करने के लिए जनता को भी अपनी आवाज सदन तक पहुंचाने का एक रास्ता खुला रहना चाहिए। यह एक पारदर्शी व्यवस्था रहनी चाहिए जिसे बाकी जनता भी देख सके। कुछ बरस पहले छत्तीसगढ़ में तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष प्रेमप्रकाश पांडेय ने ऐसी एक सोच सामने रखी थी, और फिर बाद में उसका पता नहीं क्या हुआ। छत्तीसगढ़ के मौजूदा विधानसभा अध्यक्ष डॉ. चरण दास महंत को इस बारे में पक्ष-विपक्ष से चर्चा करके जनता को एक हक देना चाहिए। ऐसी भागीदारी से विधानसभा का सम्मान बढ़ेगा, और किसी विधायक का बर्ताव सही न रहने पर उसके बारे में विधानसभा तक शिकायत करने का भी एक रास्ता निकलेगा। जनता को अपने मुद्दे सदनों में उठाने का एक मौका जरूर मिलना चाहिए, और सदन की कोई समिति ऐसी जनहित याचिकाओं पर विचार करने के लिए बनाई जा सकती है।