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अनबोले तक परहेज की नौबत बड़ी अलोकतांत्रिक

सुप्रीम कोर्ट में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने आखिरी एक साफ-साफ हलफनामा दाखिल करके इस बात के लिए माफी मांगी है कि उन्होंने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ चौकीदार चोर है के नारे में सुप्रीम कोर्ट का जो हवाला दिया था, वह गलत था। भारत के चुनाव शुरू होने के महीनों पहले से चौकीदार होने, और चौकीदार के चोर होने के आमने-सामने के नारे चल रहे थे। इन्हीं नारों को रात-दिन दुहराते हुए राहुल गांधी एक आमसभा में बोल गए कि अब तो सुप्रीम कोर्ट ने भी मान लिया है कि चौकीदार चोर है। जबकि सुप्रीम कोर्ट में रफाल की जो सुनवाई चल रही थी, उसमें अदालत ने अपने लिखित आदेश में, या जजों ने जुबानी भी ऐसी कोई बात नहीं कही थी। 
पिछले बरसों में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल सहित बहुत से नेताओं को अपने दिए गए बयानों को लेकर विरोधियों से मानहानि के मुकदमों में माफी मांगनी पड़ी है, और बहुत से नाजायज बयान तो अदालतों तक जा भी नहीं पाते हैं क्योंकि जिनके खिलाफ ये रहते हैं वे इतनी जहमत नहीं उठाते कि महंगी अदालती कार्रवाई में पड़ें, और फिर अदालती रफ्तार की वजह से आगे और तकलीफ पाएं। अधिकतर मामले तो आए-गए हो जाते हैं, लेकिन इन दिनों कांग्रेस और भाजपा के बीच जितनी कटुता चल रही है, उसमें यह जाहिर है कि कोई दूसरे की किसी नाजायज बात को बर्दाश्त करने की हालत में नहीं है।
कुछ ऐसा ही मामला हाल ही में छत्तीसगढ़ में हुआ जहां कांग्रेस और भाजपा के प्रवक्ताओं के बयान कानूनी नोटिस की वजह बने, और फिर थाने तक पहुंचे। दोनों ही पार्टियों ने दूसरे के एक-एक प्रवक्ता के टीवी-बहिष्कार की घोषणा की, और कटुता खासी बढ़ चुकी है जितनी कि दिल्ली में कांग्रेस और भाजपा के बीच है। यह कोई नई बात नहीं है और पिछले कई बरस से न सिर्फ कांग्रेस और भाजपा के बीच, बल्कि दूसरी कई पार्टियों के बीच छत्तीसगढ़ और बाकी देश में बातचीत के रिश्ते खत्म हो चुके हैं, और अभी ताजा मिसाल बंगाल की है जहां मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी ने तूफान के मुद्दे पर भी प्रधानमंत्री से बात करना मुनासिब नहीं समझा। ऐसा अनबोला चाहे जिसकी गलती से हो रहा हो, चाहे सबकी गलती से हो रहा हो, बहुत ही अलोकतांत्रिक है, और हिंदुस्तान जैसे संघीय लोकतंत्र में यह कुल मिलाकर जनता के लिए नुकसानदेह है। 
जब बड़े-बड़े नेता एक-दूसरे के खिलाफ, एक-दूसरे के गुजरे हुए और शहीद नेताओं के खिलाफ गंदी जुबान में बात करें, तो यह जाहिर है कि बातचीत का रिश्ता बाकी रहना मुमकिन नहीं है। लेकिन उससे इन दोनों पार्टियों के बजाय, या ऐसी तमाम पार्टियों के बजाय अधिक नुकसान जनता के उन मुद्दों का होता है जिन पर कभी संसद के भीतर सबको मिलकर बात करना चाहिए, या उन मुद्दों का होता है जिन केंद्र और राज्य को मिलकर बात करना जरूरी होता है। ऐसी तनातनी, इतना परहेज, इतनी कड़वाहट पूरी तरह अलोकतांत्रिक है। लोग अपने जख्मों को लेकर, दूसरे के हमलों को लेकर, हथियारों और शब्दों को लेकर, आज की बात और बीते कल के इतिहास को लेकर एक-दूसरे से इतना परहेज पाल चुके हैं कि उनके सदन के भीतर या बाहर बात करने की कोई जमीन बाकी नहीं है। यह सिलसिला बहुत खराब है जब लोग एक-दूसरे को, एक-दूसरे के गुजरे हुए पुरखों को गालियां देकर भी बात कर पाते हैं, उसके बिना नहीं।
[ साभार-संपादकीय दैनिक 'छत्तीसगढ़', 8 मई]
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