Slider

चुनावी चंदे का धंधा छुपाने की केन्द्र की कोशिश बड़ी बेशर्म

सुप्रीम कोर्ट में चुनावी-बांड को लेकर दायर की गई एक जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान केन्द्र सरकार के वकील ने अदालत के सामने एक बड़ा दिलचस्प तर्क रखा। अटार्नी जनरल के.के. वेणुगोपाल ने कहा कि राजनीतिक दलों को कहां से और कितना पैसा मिला है इस बारे में मतदाताओं को जानने की क्या जरूरत है? उन्होंने कहा कि मतदाताओं को उम्मीदवारों के बारे में जानने का हक है लेकिन उन्हें यह जानने की क्या जरूरत है कि पार्टियों को पैसा कहां से मिल रहा है? आज इक्कीसवीं सदी के भारतीय लोकतंत्र में इससे अधिक बेशर्मी की कोई बात सरकार की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में कम ही आई होगी। एक तरफ तो छोटे-छोटे सरकारी मुलाजिमों पर यह कानूनी बंदिश है कि वे अपनी, अपने जीवनसाथी की, और अपने नाबालिग बच्चों की सारी संपत्ति की हर बरस घोषणा करें, और उसे सार्वजनिक भी कर दिया जाता है, कोई भी व्यक्ति जाकर किसी भी सरकारी कर्मचारी की यह जानकारी मांग सकते हैं। सूचना का अधिकार उन तमाम मामलों पर लागू किया गया है जो सरकार के कारोबारी मामले नहीं हैं, या राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े हुए नहीं हैं। इसके बावजूद कुछ बरस पहले सुप्रीम कोर्ट के जज इस बात पर अड़ गए थे कि उनकी संपत्ति की जानकारी उजागर नहीं की जाए। और यह बड़ी अजीब नौबत थी जब दिल्ली हाईकोर्ट ने इस मामले पर फैसला दिया था कि सुप्रीम कोर्ट जजों को यह जानकारी देनी ही होगी। सत्ता में सबसे ऊपर बैठे हुए लोग अपने पूरे बदन को इतने बड़े तौलिए से ढांककर रखना चाहते हैं कि वह तौलिया नहीं दिखता, एक बुर्का दिखता है। राजनीतिक दलों को इतना पैसा कहां से मिल रहा है इसे छुपाने के पीछे यही एक नीयत है। अब इस नियम और इस बहस से परे अगर जमीनी हकीकत पर आएं, तो अदालत में यह बताया गया है कि 221 करोड़ के चुनावी-बांड में से 210 करोड़ के बांड केवल भाजपा के लिए खरीदे गए हैं, बाकी 11 करोड़ में बाकी तमाम पार्टियां हैं। अगर अदालत में पेश ये आंकड़े सही हैं, तो यह भी एक वजह हो सकती है कि भाजपा की अगुवाई वाली केन्द्र सरकार राजनीतिक चंदा-उगाही को ढंका-छुपा रखना चाहती है। लेकिन हम लगातार चुनाव सुधार, और राजनीति में कालेधन के इस्तेमाल के खिलाफ लिखते हैं, और इस तरह से चुनावी बांड के मार्फत पार्टियों को मिला हुआ चंदा अगर जनता की नजरों से छुपाकर रखा जाएगा, तो यह राजनीति में कालेधन के इस्तेमाल से अलग कैसे होगा? इसलिए केन्द्र सरकार के इस बहुत ही रद्दी तर्क को कूड़े की टोकरी में फेंककर सुप्रीम कोर्ट को चाहिए कि चुनाव और राजनीति में चंदे का यह धंधा उजागर करे, और सत्तारूढ़ पार्टी को चंदा देकर सरकार से फायदा पाने की मजबूत परंपरा को तोड़े। सूचना का अधिकार शब्दों का खेल नहीं होना चाहिए कि जिससे कमजोर को तो नंगा कर दिया जाए, और ताकतवर-सत्तारूढ़ को फौलादी ढाल दे दी जाए। सामान्य समझबूझ के किसी इंसान के लिए भी यह सोचना कुछ मुश्किल बात है कि सुप्रीम कोर्ट के सामने केन्द्र सरकार ऐसे बेशर्म तर्क रख सकती है। यह तो भला हो जनहित याचिकाओं का जो कि बार-बार सरकारों के ओछेपन को उजागर करती हैं, और यह भी साबित करती हैं कि भारतीय लोकतंत्र में जहां संसद कामकाज की नहीं रह गई है, सरकारें अपने आपको रहस्य के पर्दे में छुपाकर गलत कामों में डूबी रहना चाहती हैं, वहां पर एक अदालत ही है जो कि सरकार की बांह मरोड़ पाती है चाहे वह चुनावी चंदे का मामला हो, या फिर रफाल विमान खरीदी के दस्तावेजों का। हिन्दुस्तान में सूचना के अधिकार का नाम बदलकर सूचना की जिम्मेदारी रखना जरूरी है, और जो मामले भी राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े हुए नहीं हैं, उन सबको सार्वजनिक इंटरनेट पर खुद होकर उजागर करने की जिम्मेदारी सरकार, सार्वजनिक संस्थाओं, और संवैधानिक संस्थाओं की होनी चाहिए। 
© all rights reserved TODAY छत्तीसगढ़ 2018
todaychhattisgarhtcg@gmail.com