भूतपूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कार्यकाल पर बनी हुई एक फिल्म इन दिनों खबरों में है, कांग्रेस के नौजवान जगह-जगह इस फिल्म के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं क्योंकि ऐसी जनधारणा है कि इसमें मनमोहन सिंह को बहुत खराब तरीके से दिखाया गया है, और उन्हें एक किस्म से सोनिया गांधी का गुलाम बताया गया है। दूसरी तरफ कांग्रेस की किसी भी प्रदेश सरकार ने इस फिल्म पर रोक लगाने से मना कर दिया है, हालांकि कांग्रेस के विरोधी लोग लगातार ऐसी फेक न्यूज बनाकर फैलाते रहे कि मध्यप्रदेश या छत्तीसगढ़ ने इस फिल्म पर रोक लगा दी है। इसके अलावा कुछ और ऐसी फिल्में लगातार आ रही हैं जिनमें फौज के बहाने या किसी और बहाने राष्ट्रवाद के मुद्दे को हवा दी जा रही है, देश के दुश्मन या देश के गद्दार गिनाए जा रहे हैं। अगले आम चुनाव के पहले ऐसी कुछ और फिल्में, ऐसे कुछ और सीरियल आ भी सकते हैं, और पिछले आम चुनाव के पहले भी यही तरीका देखने में आया था।
दरअसल राजनीति, चुनाव, और बाजार का कारोबार, इन सबने हाथ में हाथ डालकर काम करना सीख लिया है। बाजार अपने हितों को देखते हुए किसी नेता या किसी पार्टी को बढ़ावा देने की तरकीबें निकाल लेता है जो कि चंदा देने के अलावा रहती हैं। दूसरी तरफ देश के सबसे बड़े कारोबारियों के हाथ में आज न सिर्फ अखबार और समाचार चैनल हैं, बल्कि फिल्म और टीवी के मनोरंजन का प्रोडक्शन भी धीरे-धीरे उनके हाथों में हैं, पुरानी फिल्मों और टीवी सीरियलों के अधिकार भी उनके हाथों में हैं, और चुनाव के वक्त लोगों की भावनाओं को उभारने या भड़काने के लिए उनका भरपूर इस्तेमाल अब भारतीय चुनावी राजनीति में एक आम बात मान लेनी चाहिए। इस चुनावी औजार या हथियार में न तो कुछ गैरकानूनी, और न ही कुछ अलोकतांत्रिक है, लेकिन फिर भी इससे चुनाव में शक की संतुलन को भरपूर बदला जा सकता है।
अमरीका में पिछले तीन बरस से यही बहस चल रही है कि रूस ने किस तरह वहां के चुनावों को प्रभावित किया, और हिलेरी क्लिंटन के हारने में अपना असर दिखाया। इसकी जांच चल ही रही है, और इस बीच ब्रिटेन सहित कुछ और यूरोपीय देशों में ऐसे मामले सामने आ रहे हैं कि रूस ने वहां के चुनाव भी प्रभावित किए। भारत के चुनावों को अभी तक देश के बाहर से विदेशी ताकतों ने प्रभावित किया हो, ऐसा तो सुनाई नहीं पड़ा है, लेकिन विदेशों में बसे हुए भारतीय जरूर इस कोशिश में लगे रहे, और उनमें से अधिकतर खुलकर भाजपा का साथ देने वाले लोग हैं। यह बात भी लोकतांत्रिक है, और इसके खिलाफ भी कोई तर्क नहीं दिया जा सकता, सिवाय इसके कि भाजपा से परे के बाकी राजनीतिक दल भी इस किस्म की तरकीबों का महत्व समझें, और उसका इस्तेमाल करें। पिछले बरसों में भारतीय चुनावों में लगातार सोशल मीडिया का इस्तेमाल बढ़ा है, और मोदी-भाजपा की शुरुआती बढ़त के बाद अब बाकी पार्टियां भी धीरे-धीरे उस तरफ बढ़ रही हैं।
लेकिन राजनीतिक दलों के सीधे और घोषित प्रचार-अभियानों से परे जब चुनाव के कुछ महीने पहले से कुछ खास किस्म की किताबें आने लगें, फिल्में आने लगें, और टीवी पर ऐसे ऐतिहासिक मुद्दों को लेकर सीरियल आने लगें कि जिनसे वोटरों की सोच को प्रभावित किया जा सके, तो यह बाजार से साथ मिलने के बिना होने वाला काम नहीं है। धीरे-धीरे कुछ चुने हुए कारोबारियों के हाथ में जिस तरह से प्रिंट मीडिया, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, फिल्म और मनोरंजन, टेलीफोन और डिजिटल सेवा, घर पहुंच टीवी सेवा, जिस तरह से ये तमाम चीजें कुछ गिने-चुने हाथों में पहुंच चुकी हैं, उनसे जनमत पर असर का एकाधिकार खड़ा हो गया है। यह सिलसिला खासा खतरनाक है, लेकिन अभी तक भारत में इस पर अधिक सार्वजनिक चर्चा हो नहीं रही है। चुनाव के पहले के महीनों में हो सकता है कि कई पुरानी फिल्में, और कई पुराने सीरियल निकालकर उन्हें दुबारा दिखाने का एक ऐसा सैलाब सामने आएगा जो कि चुनाव को प्रभावित करने की ताकत रखेगा। सरकार तक पहुंचने के लिए कारोबार की यह मदद लोकतंत्र को बाजार की मोहताज बनाकर रख देगी, शायद रख चुकी है।