छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, और राजस्थान, इन तीनों ही प्रदेशों में अगले चार दिनों में नई सरकार काम सम्हाल लेंगी, और कांग्रेस की ये तीनों सरकारें भाजपा सरकार के बाद एक फेरबदल लाने की चुनौती भी झेल रही होंगी, और उसके साथ-साथ राहुल गांधी का भविष्य तय करने की जिम्मेदारी भी इन्हीं पर होगी। आज जरूर राहुल ने इन तीनों राज्यों के मुखिया तय किए हैं, लेकिन छह महीने के बाद के आम चुनाव में देश का मुखिया कौन हो, यह तय करने में इन तीन मुख्यमंत्रियों का भी बड़ा हाथ रहेगा। इसलिए चुनौती का एक मोर्चा तो कांग्रेस ने इन तीनों राज्यों में विधानसभा चुनाव जीतकर फतह किया है, लेकिन शायद उससे बड़ी एक दूसरे किस्म की चुनौती उनके सामने हैं। इन तीनों मुख्यमंत्रियों पर कांग्रेस के विधानसभा चुनाव घोषणापत्र को पूरा करने की जिम्मेदारी भी रहेगी, और उसके लिए उन्हें पांच बरस नहीं, पांच महीने ही मिल रहे हैं, और इतने में ही मतदाता हंडी के चावल के एक दाने को मसलकर बाकी चावल पकने का अंदाज लगाएंगे।
इन तीनों राज्यों में छत्तीसगढ़ में चुनौती और भी बहुत बड़ी है क्योंकि यहां कांग्रेस को जनता ने छप्पर फाड़कर इतनी सीटें दी हैं जितनी कि किसी कांग्रेसी ने अपने सबसे सुखद सपने में भी नहीं देखी थीं। दो तिहाई का दावा करने वाले कांग्रेसियों को जनता ने तीन चौथाई सीटें नहीं थमाई हैं, बल्कि उम्मीदों का एक इतना बड़ा टोकरा कांग्रेस के सिर पर रखा है कि उसे ढोते हुए कमर टूटने लगेगी, और जनता बहुत गौर से यह देखती भी रहेगी। चुनाव घोषणापत्र के तहत किसानी कर्ज की तुरंत माफी के लिए गंगाजल लेकर खाई गई कसम खासी नाटकीय थी, लेकिन गंगा की कसम की गंभीरता को लोग ग्यारहवें दिन देखने और पूछने लगेंगे। दूसरी बात यह कि 90 में से 68 विधायक कांग्रेस के हैं, वे पन्द्रह बरस बाद सत्ता में आई हुई पार्टी के विधायक हैं, और जाहिर है कि उनकी अपनी राजनीतिक-आर्थिक महत्वाकांक्षाएं भी होंगी, और उनको पूरा करते हुए वे ऐसे चूक कर सकते हैं कि लोकसभा चुनाव के पहले वे पार्टी की साख खतरे में डालें। छत्तीसगढ़ में स्टिंग ऑपरेशनों की मजबूत परंपरा कायम हो चुकी है, और कांग्रेस को अपनी साख बचाने के लिए सबसे पहले अपने तमाम विधायकों, मंत्रियों और निगम मंडल अध्यक्षों, और पार्टी पदाधिकारियों का यह प्रशिक्षण करना चाहिए कि इक्कीसवीं सदी की डिजिटल टेक्नालॉजी के बीच उन्हें किस तरह चौकन्ना जीना है। ऐसा न होने पर किसी पार्टी का क्या हश्र होता है, यह भाजपा इस चुनाव में साबित भी कर चुकी है, जबकि भाजपा के खिलाफ किए गए अधिकतर स्टिंग अभी तक चुनावी इस्तेमाल में आए भी नहीं है, वे बस आए और धरे रह गए। लेकिन आने वाले दिन ऐसे हो सकते हैं कि वे लोकसभा चुनाव के नतीजों को बिगाड़ सकते हैं।
कांग्रेस के सामने अपनी सरकार के इस कार्यकाल में और भी प्रशासकीय चुनौतियां रहेंगी क्योंकि केन्द्र में भाजपा की अगुवाई वाली नरेन्द्र मोदी की सरकार उसके प्रति वैसी रहमदिल नहीं रहेगी जैसी कि मनमोहन सिंह की सरकार रमन सिंह के लिए थी। यह एक अलग बात है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने छत्तीसगढ़ की रमन सरकार के साथ यूपीए के दस बरस में भारी भेदभाव का आरोप चुनावी सभाओं में लगाया, लेकिन छत्तीसगढ़ के लोग इस बात के गवाह हैं कि दस बरस में रमन सिंह को कभी मनमोहन सिंह से कोई शिकायत नहीं रही। लेकिन आने वाला आधा बरस ऐसा नहीं रहने वाला है, और कांग्रेस सरकार को अपने सभी चुनावी मुद्दों को लेकर न सिर्फ भाजपा से, बल्कि केन्द्र सरकार से भी एक कड़ी चुनौती रहेगी। कांग्रेस के मुख्यमंत्री के सामने एक चुनौती यह भी रहेगी कि राज्य के अफसरों में से वह किनको रमन सिंह के प्रति वफादार मानकर अलग करेगी, और किन लोगों से काम लेगी। हर सरकार की अपनी कुछ पसंद-नापसंद होती है, लेकिन कभी-कभी नापसंदगी इतनी मजबूत हो जाती है कि वह सरकार के लिए नुकसानदेह भी रहती है। इसलिए छत्तीसगढ़ के अगले मुख्यमंत्री को अफसरों को अलग-अलग जिम्मा देते हुए समझदारी से भी काम लेना होगा, और हो सकता है कि राजनीतिक पसंद-नापसंद को कुछ हद तक अलग भी रखना होगा। इस पार्टी को सरकार चलाने का देश में सबसे लंबा तजुर्बा है, और मछली के बच्चे को तैरना सिखाने की हमारी कोई नीयत नहीं है, हम महज आम पाठकों के सामने मुद्दों को रखने के लिए यह बात लिख रहे हैं। अभी हम जिक्र छत्तीसगढ़ का अधिक कर रहे हैं, लेकिन इनमें से हर बात राजस्थान और मध्यप्रदेश पर भी लागू होती है, और इन सभी राज्यों में कांग्रेस को सत्ता चलाने का लंबा तजुर्बा रहा है। आने वाले महीने न सिर्फ नए मुख्यमंत्रियों, और नए मंत्रियों की अगुवाई में राज्य का भविष्य तय करेंगे, बल्कि उनके नेता राहुल गांधी का भविष्य भी तय करेंगे, और हमें उम्मीद है कि इन दोनों बातों को समझकर नई सरकारें बेहतर काम करेंगी।
- सुनील कुमार
[ साभार -15 दिसंबर, दैनिक 'छत्तीसगढ़' का संपादकीय ]